बुधवार, 1 मार्च 2017

राजनीतिः भोजपुरी की मांग और हिंदी का भविष्य : प्रेमपाल शर्मा

भोजपुरी हिंदी की प्राण है और रहेगी। बाकी दस राज्यों की बोलियां भी। अंग्रेजी के वर्चस्व से लड़ने की जरूरत है, न कि आपस में। हमें नौकरी, शिक्षा और न्यायालयों में अपनी भाषाओं की प्रतिष्ठा के लिए एक साथ आने की जरूरत है। हिंदी को मानकीकरण, लचीलेपन तथा समावेशिता आदि के लिए देश भर ने स्वीकारा था। भोजपुरी से उसका कोई विरोध नहीं।
हिंदी समेत सारी भारतीय भाषाएं संकट के दौर से गुजर रही हैं। हताशा में लोग यह भविष्यवाणी तक कर देते हैं कि 2050 तक अंधेरा इतना घना हो जाएगा कि सिर्फ अंग्रेजी दिखाई देगी। भविष्यवाणी की टपोरी बातों को न भी सुना जाए तो हिंदी की मौलिक बौद्धिक, कथा-उपन्यास की किताबों की छपाई-संख्या बता रही है कि अपनी भाषाएं-बोलियां हैं तो महा संकट में ही। ऐसे में भोजपुरी को संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल करने की मांग भाषाई व सांस्कृतिक मुद््दों से भटकाने और राजनीतिक प्रहसन से ज्यादा नहीं लगती। एक आम हिंदीभाषी सोचने को मजबूर है कि ऐसी मांग के पीछे मंशा क्या हो सकती है? क्या अपनी भोजपुरी बोली (या भाषा) पर अचानक कोई संकट आ गया? क्या उत्तर प्रदेश व बिहार की सरकारों ने, जहां की सीमाओं पर इस राजनीति के अखाड़े-अड्डे शुरू हुए हैं, कोई ऐसा कदम उठाया कि भोजपुरी अस्मिता आहत हुई? या सिर्फ संख्या-बल पर कुछ हासिल करने, पहचान बनाने और महत्त्वाकांक्षा का मामला भर है। निश्चित रूप से मैथिली व संथाली को आठवीं अनुसूची में शामिल करने के पूर्व उदाहरण इस मांग के उत्प्रेरक हैं, लेकिन यदि यही रफ्तार रही तो आठवीं अनुसूची में आठ सौ भाषाएं-बोलियां भी कम पड़ेंगी! फिर तो रोज नई मांग उठेगी।
थोड़ी देर के लिए अपनी बोली के शब्दों, उनके भाषाई जादू, रोमांच व सौंदर्य, गीत-संगीत के पक्ष में खड़ा हुआ जाए तो भी इनसे पूछने का मन करता है कि दिल्ली विश्वविद्यालय में पिछले पचास-साठ सालों में हिंदी माध्यम से पढ़ने वालों की संख्या लगातार कम हो रही है, उत्तर प्रदेश व बिहार के छात्रों की बढ़ती संख्या के बावजूद। ये गरीब बेचारे दिल्ली की अंग्रेजी की चकाचौंध में मारे जाते हैं। बीए, एमए में फेल होते हैं, अपनी पसंद का विषय अपनी भाषा (हिंदी माध्यम) में उपलब्ध न होने की वजह से बेमन से दूसरे विषय पढ़ते हैं। क्या कभी इनकी आवाज तथाकथित भोजपुरी के झंडाबरदारों ने सुनी?
2016 की अंतिम खबर थी नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल ने हिंदी में लिखी शिकायत व आवेदन लेने से मना कर दिया है। एक केंद्रीय विश्वविद्यालय ने गांधी पर शोध हिंदी में लेने से मना कर दिया। ऐसे सैकड़ों उदाहरण हैं। मगर इनके लिए कोई आंदोलन किया गया? पांच साल पहले एम्स (दिल्ली) में अनिल मीणा नाम के एक नौजवान डॉक्टर ने आत्महत्या से पहले अंग्रेजी के आतंक, पढ़ाई समझ में न आने का पत्र छोड़ा था। क्या हिंदी के साहित्यकारों या भोजपुरी अकादमी के कान पर जूं भी रेंगी? दिल्ली के एक सरकारी स्कूल की एक बच्ची की पिटाई अंग्रेजी न जानने की वजह से इतनी क्रूरता से की गई कि उसकी जान चली गई। दिल्ली में भोजपुरी की राजनीति कर रहे दिग्गज क्या यह नहीं जानते कि दिल्ली के निजी स्कूलों में हिंदी बोलने पर वर्षों से अघोषित प्रतिबंध है। जिन स्कूलों, विश्वविद्यालयों में हिंदी में ही पढ़ना-पढ़ाना मुश्किल हो रहा हो, वहां क्या भोजपुरी को कोई जगह मिल पाएगी?
और क्या ये सभी भोजपुरी की समृद्धि बढ़ाने के लिए ऐसी मांग करेंगे? क्या अपने बच्चों को भोजपुरी, मैथिली माध्यम में पढ़ाएंगे? या यह मैथिली आदि की तर्ज पर केवल आठवीं अनुसूची तक सीमित रहेगी? क्या उत्तर प्रदेश व बिहार की सरकारों से भोजपुरी में पढ़ाने की मांग सिर्फ दिल्ली में राजनीति चमकाने का औजार है? यों तो लोकतंत्र के कई चेहरे भारत के अलग-अलग हिस्सों में मौजूद हैं और होने भी चाहिए। लेकिन सबसे विरूपित चेहरा गंगाघाटी का है जहां हर चीज की उम्मीद सरकार से ही की जाती है- माल भी उसी का और भरपेट गालियां भी उसी को। भोजपुरी के पीछे की मंशा भी जगजाहिर है।
आठवीं अनुसूची में लाने से संघ लोक सेवा आयोग की सर्वोच्च परीक्षा (सिविल सेवा परीक्षा) में मैथिली, कोंकणी, उर्दू, हिंदी की तरह भोजपुरी को भी एक वैकल्पिक विषय के रूप में लेने की सुविधा हो जाएगी और इससे हो सकता है दस-बीस भोजपुरी छात्रों का सरकारी नौकरी में प्रवेश हो जाए। मौजूदा दौर में भाषा-साहित्य के वैकल्पिक परचे में ऐसा हो भी रहा है। इंजीनियरिंग किया है आईआईटी कानपुर, खड़गपुर, दिल्ली से, सिविल सेवा में वैकल्पिक विषय लिया मैथिली, संस्कृत, डोगरी और कभी-कभी मलयालम, तेलुगू, मराठी भी। इंजीनियरिंग, डॉक्टरी की अपनी विशेषज्ञता को छोड़ कर। पौ बारह। सीमित पाठयक्रम, सीमित पेपर बनाने वाले, जांचने वाले। अस्सी के दशक में पालि भाषा-साहित्य आदि के संदर्भ में ये आंकड़े सामने आए। आयोग भी क्या करे? पक्षपात से बचने और देश की सर्वश्रेष्ठ प्रतिभाओं को चुनने के लिए कई उपाय किए गए। कुछ विषयों को हटाना भी पड़ा।
कुछ सुधार पिछले दो साल में हुए हैं जब दो वैकल्पिक विषयों की जगह केवल एक कर दिया गया है। लेकिन भाषा-साहित्य के बूते पिछले दरवाजे से सिविल सेवाओं में प्रवेश पर अब भी आयोग चौकन्ना है। हाल ही में पूरी परीक्षा प्रणाली की समीक्षा के लिए गठित बासवान समिति ने अपनी रिपोर्ट में एक वैकल्पिक विषय को भी हटाने की बात कही है, जो ठीक भी है। सभी के लिए समान प्लेटफार्म, सामान्य ज्ञान आदि की परीक्षा। न मैथिली, कोंकणी न गणित, उर्दू आदि। यानी जिस उम्मीद से भोजपुरी के रास्ते सिविल सेवाओं में सेंध लगाने की मांग की जा रही है वही पूरी तरह खत्म हो सकती है।
इसी मुद््दे से जुड़े संक्षेप में कुछ और सवाल। क्या भोजपुरी मंच संघ लोक सेवा आयोग की दर्जन भर अखिल भारतीय परीक्षाएं- जैसे डॉक्टरी, इंजीनियरिंग, वन सेवा, रक्षा- भारतीय भाषाओं में कराने की मांग करेगा? दिल्ली में लाखों भोजपुरी बोलने वाले हैं, इलाहाबाद व पटना में भी। कभी कोई आवाज क्यों नहीं उठी? सिविल सेवा परीक्षा के सी-सैट में वर्ष 2011 में तत्कालील यूपीए सरकार ने अंग्रेजी लाद दी थी, जिसके परिणामस्वरूप हिंदी माध्यम से परीक्षा देने वाले और सफल होने वाले पंद्रह-बीस प्रतिशत से घट कर पांच प्रतिशत से भी कम हो गए थे। क्या किसी ने भोजपुरी के इन नेताओं का नाम सुना? 2014 में नई सरकार ने इस अंग्रेजी को हटाया, सिविल सेवा परीक्षार्थियों के संघर्ष के सामने घुटने टेकते हुए।
इसलिए वक्त का तकाजा है कि हम क्षेत्रीय भाषा, बोलियों की संकीर्ण दृष्टि को छोड़ कर पूरे देश के लिए स्वीकृत और संवैधानिक रूप से अधिकृत हिंदी के पक्ष में अपनी आवाज बुलंद करें। भोजपुरी जैसी किसी मांग से राष्ट्रीय स्तर पर हिंदी का पक्ष कमजोर ही होगा। प्रशासन के लिए भी गलत साबित होगा।
भोजपुरी और ऐसी दर्जन भर भाषाएं भी अलग हो जाएं तो हिंदी की मौजूदा संवैधानिक स्थिति पर देश के कई राज्य उंगली उठाने लगेंगे! लग जाएगा पलीता गांधी, राजेंद्र प्रसाद, नेहरू, पटेल, आयंगर के राष्ट्रीय सपनों को, जो हिंदुस्तानी (हिंदी) को अपने व्यापक अनुभव के कारण संपर्क भाषा मानते थे और इसीलिए उसे संवैधानिक राजभाषा का दर्जा मिला। यह संविधान का उल्लंघन होगा या उसका पालन?
संविधान के नीति निर्देशक खंड में सभी भाषाओं-बोलियों को आगे बढ़ाने की बात कही गई है। यह हम सबका दायित्व है कि सरकारी कामकाज व शिक्षा में अपनी भाषाओं-बोलियों को आगे बढ़ाएं। भोजपुरी हिंदी की प्राण है और रहेगी। बाकी दस राज्यों की बोलियां भी। सांस्कृतिक संकट के इस दौर में अंग्रेजी के वर्चस्व से लड़ने की जरूरत है, न कि आपस में। हमें नौकरी, शिक्षा और न्यायालयों में अपनी भाषाओं की प्रतिष्ठा के लिए एक साथ आने की जरूरत है। हिंदी को मानकीकरण व लचीलेपन आदि के लिए देश भर ने स्वीकारा था। भोजपुरी से उसका कोई विरोध नहीं।

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