बुधवार, 31 मई 2017

भोजपुरी की 101 लोकप्रिय कहावतें

1. हंसले घर बसेला– उन्नति करना
2. हेलल भंईसिया पानी में– सब खत्म हो जाना
3. करिया अच्छर से भेंट ना, पेंगले पढ़ऽ ताड़ें– असमर्थ होकर भी बड़ी-बड़ी बातें करना
4. नव के लकड़ी, नब्बे खरच– बेवकूफी में खर्च करना
5. हाथी चले बाजार, कुकुर भोंके हजार– गंभीरता से काम करना
6. खेत खाय गदहा, मारल जाय जोलहा– किसी और की गलती की सजा किसी और को मिलना
7. नन्ही चुकी गाजी मियाँ, नव हाथ के पोंछ- सम्भलने से परे
8. क, ख, ग, घ के लूर ना, दे माई पोथी– औकात से अधिक माँगना
9. जिनगी भर गुलामी, बढ़-बढ़ के बात– छोटी मुँह बड़ी बात
10. ना नईहरे सुख, ना ससुरे सुख– अभागा
11. बिनु घरनी, घर भूत के डेरा– नारी बिना घर सूना
12. सुपवा हंसे चलनिया के कि तोरा में सतहत्तर छेद– खुद दोषी होकर किसी को कोसना
13. सब धन बाईसे पसेरी– सब एक समान
14. रामजी के चिरईं, रामजी के खेत, खाले चिरईं भर-भर पेट– अपने धन पर ऐश
15. अबरा के मउगी, भर घर के भउजी– कमजोर का मजाक बनाना
16. केहू हीरा चोर, केहू खीरा चोर– चोर-चोर मौसेरे भाई
17. हवा के आंगा, बेना के बतास– सूरज को दीपक दिखाना
18. फुटली आँखों ना सोहाला– बिल्कुल नापसंद
19. चिरईं के जान जाए, लईका के खेलवना– किसी का कष्ट देख खुश होना
20. घाट-घाट का पानी पी के होखल बड़का संत– सौ चूहे खाकर बिल्ली चली हज को
21. नवकि में नव के पुरनकी में ठाढ़े– नये-नये को इज्जत देना
22. लईकन के संग बाजे मृदंग, बुढ़वन के संग खर्ची के दंग– जब जैसा तब तैसा
23. इहे छउड़ी इहे गाँव, पूछे छउड़ी कवन गाँव– जानबूझ के अनजान बनना
24. घीव के लड्डू, टेढो भला– मांगी हुई चीज़ हर हाल में अच्छी
25. उधो के लेना, ना माधो के देना– अलग-अलग रहना
26. काठ के हड़िया चढ़े न दूजो बार– बिना अस्तित्व का
27. गुरु गुड़ रह गइलन, चेला चीनी हो गइले– गुरु से आगे निकल जाना
28. घर के भेदिया लंका ढाहे– चुगली करने वाला
29. मुअल घोड़ा के घास खाइल– मिथ्या आरोप
30. चमड़ी जाय पर दमड़ी न जाए– कंजूस
31. भाग वाला के भूत हर जोतेला– भाग्यवान का काम बन जाना
32. जइसन बोअबऽ, ओइसने कटबऽ– जैसी करनी वैसी भरनी
33. जेकर बनरी उहे नचावे, दोसर नचावे त काटे धावे– जिसकी चीज़ उसी की अक्ल
34. दुधारू गाय के लातो सहल जाला– लाभ मिले तो मार भी सहनी पड़ती है
35. बाण-बाण गइल त नौ हाथ के पगहा ले गइल– खुद तो डूबे दूसरे को भी ले डूबे
36. नया-नया दुलहिन के नया-नया चाल– नई प्रथा शुरू करना
37. जे न देखल कनेया पुतरी उ देखल साली– उन्नति कर जाना
38. जेतना के बबुआ ना ओतना के झुनझुना– अधिक खर्च करना
39. बाग़ के बाग़ चउरिये बा– बेवकूफ जनता
40. ऊपर से तऽ दिल मिला, भीतर फांके तीर– धोखेबाज
41. नव नगद ना तेरह उधार– लेन-देन बराबर रखना
42. पइसा ना कउड़ी बीच बाजार में दौड़ा-दौड़ी– बिना साधन के भविष्य की कल्पना
43. माई चले गली-गली, बेटा बने बजरंगबली– खुद की तारीफ़ करना
44. रूप न रंग, मुँह देखाइये मांगताड़े– ठगी करना
45. खाए के ठेकान ना, नहाये के तड़के– परपंच रचना
46. रहे के ठेकान ना पंड़ाइन मांगस डेरा– असमर्थता
47. कफन में जेब ना, दफन में भेव– ईमानदार
48. लगन चरचराई अपने हो जाई– समय पर काम बन जाना
49. भूख त छूछ का, नींद त खरहर का– आवश्यकता प्रधान
50. गज भर के गाजी मियाँ नव हाथ के पोंछ– आडम्बर
51. छाती पर मुंग दरऽ– बिना मतलब का कष्ट देना
52. भेड़ियाधसान- घमासान, भेड़-चाल
53. हंस के मंत्री कौआ– बेमेल
54. भर घरे देवर, भसुरे से मजाक– उल्टा काम करना
55. हम चराईं दिल्ली, हमरा के चरावे घर के बिल्ली– घर की मुर्गी दाल बराबर
56. अगिला खेती आगे-आगे, पछिला खेती भागे जागे– अग्र सोची सदा सुखी
57. हंसुआ के बिआह, खुरपी के गीत– बेमतलब की बात
58. ओस के चटला से पिआस ना मिटे– ऊँट के मुंह में जीरा
59. आंगा नाथ ना पाछा पगहा– बिना रोक-टोक के
60. ओखर में हाथ, मुसर के देनी दोष– नाच न जाने आँगन टेढ़ा
61. काली माई करिया, भवानी माई गोर– अपनी-अपनी किस्मत
62. माड़-भात-चोखा, कबो ना करे धोखा– सादगी का रहन-सहन
63. करम फूटे त फटे बेवाय– अभागा
64. कोइला से हीरा, कीचड़ से फूल– अद्भुत कार्य
65. तेली के जरे मसाल, मसालची के फटे कपार– इर्ष्या करना
66. तीन में ना तेरह में– कहीं का नहीं
67. दउरा में डेग डालल – धीरे-धीरे चलन
68. भर फगुआ बुढ़उ देवर लागेंले– मौसमी अंदाज
69. कंकरी के चोर फाँसी के सजाए– छोटे गुनाह की बड़ी सज़ा
70. कहला से धोबी गदहा पर ना चढ़े– मनमौजी
71. दाल-भात के कवर– बहुत आसन होना
72. होता घीवढारी आ सराध के मंतर– विपरीत काम करना
73. ससुर के परान जाए पतोह करे काजर– निष्ठुर होना
74. बिलइया के नजर मुसवे पर– लक्ष्य पर ध्यान होना
75. लूर-लुपुत बाई मुअले प जाई– आदत से लाचार
76. हड़बड़ी के बिआह, कनपटीये सेनुर– हड़बड़ी का काम गड़बड़ी में
77. बनला के सभे इयार, बिगड़ला के केहू ना– समय का फेर
78. राजा के मोतिये के दुःख बाऽ– सक्षम को क्या दुःख
79. रोवे के रहनी अंखिये खोदा गइल– बहाना मिल जाना
80. बुढ़ सुगा पोस ना मानेला– पुराने को नयी सीख नहीं दी जा सकती
81. कानी बिना रहलो न जाये, कानी के देख के अंखियो पेराए– प्यार में तकरार
82. अक्किल गईल घास चरे- सोच-विचार न कर पाना
83. घर फूटे जवार लूटे– दुसरे का फायदा उठाना
84. ना खेलब ना खेले देब, खेलवे बिगाड़ब– किसी को आगे न बढ़ने देना
85. मंगनी के बैल के दांत ना गिनाये– मुफ्त में मिली वस्तु की तुलना नहीं की जाती
86. ना नौ मन तेल होई ना राधा नचिहें– न साधन उपलब्ध होगा, न कार्य होगा
87. एक मुट्ठी लाई, बरखा ओनिये बिलाई– थोड़ी मात्रा में
88. हथिया-हथिया कइलन गदहो ना ले अइलन– नाम बड़े दर्शन छोटे
89. चउबे गइलन छब्बे बने दूबे बन के अइलन– फायदे के लालच में नुकसान करना
90. राम मिलावे जोड़ी एगो आन्हर एगो कोढ़ी– एक जैसा मेल करना
91. आन्हर कुकुर बतासे भोंके– बिना ज्ञान के बात करना
92. बईठल बनिया का करे, एह कोठी के धान ओह कोठी धरे– बिना मतलब का काम करना
93. घर के जोगी जोगड़ा, आन गाँव के सिद्ध– घर की मुर्गी दाल बराबर
94. भूखे भजन ना होइहें गोपाला, लेलीं आपन कंठी-माला– खाली पेट काम नहीं होता
95. ना नीमन गीतिया गाइब, ना मड़वा में जाइब– ना अच्छा काम करेंगे ना पूछ होगी
96. लाद दऽ लदवा दऽ, घरे ले पहुँचवा दऽ– बढ़ता लालच
97. पड़लें राम कुकुर के पाले– कुसंगति में पड़ना
98. अंडा सिखावे बच्चा के, बच्चा करु चेंव-चेंव– अज्ञानी का ज्ञानी को सिखाना
99. लात के देवता बात से ना माने– आदत से लाचार
100. जे ना देखन अठन्नी-चवन्नी उ देखल रूपइया– सौभाग्यशाली
101. भोला गइलें टोला प, खेत भइल बटोहिया, भोला बो के लइका भइल ले गइल सिपहिया– ना घर का ना घाट का

1:गाय गुन बछरु पिता गुण घोड़ ना ढेर त थोरो थोर 
2:आपना करत उढर ग ईली आ गाव के लोग के दोष 
3:ई त बुझे लाल बझक्कड़ और ना बुझे कोई गर मे ओखर बान्ध के कुत्ता भागल होई ।
4बिना मन के बिआह कनपटी ले सेनुर।
5:गाछ ना बिरीछ ताहा रेड़ परधान ।
6:जाकर बनरी से ही नचावे दोसर नचावे काटे धावे ।
7:ना नव मन तेल होई ना राधा नचिहै ।
8:धर मे भूजी भाड़्

1) आपन मामा मईहर गईले, मियां मामा इमली घोटईहे।

2) यार के खीस भतार प।
3) पढ़े लिखे तेरह बाइस, टिकिया घूस में नाम लिखाईस।
4) बेसवा रूसे, धर्म बाचे।
5) अइनी ना गईनी, फलनवा बो कहईनि।
6) लेना ना देना, भर देह पसेना।
7) हाथी के कान प बईठल।
8) नाक प के फोरा।
9) लाजे भव बोलस ना, सवादे भसुर छोड़स ना।
10) जवन रोगिया चाहे, तवने बैदा बतावे।

मंगलवार, 14 मार्च 2017

ये घरी फुलझड़ी लागेलु इनर के परी

 ये घरी फुलझड़ी लागेलु इनर के परी
रूप सुनर सतरह के उमर पर आई मस्त जवानी
नवरतन तेल लागल ना होई कवनो  परेशानी

अ ]   नींद जदी जो न लागी हो
        काम से देहियाँ थाकी  हो
         जड़ी-बूटी  से बनल ई तेल
         रोग ना रहे दिही बाक़ी हो
एही से मल गर गतर -गतर तब मिली आराम ये रानी
नवरतन तेल लागल ना होई कवनो  परेशानी

ब ]  जदी  जो तोहरो बथी कपार
      या अगर जो आई बोख़ार
      आजमा  के देख नवरतन तेल
       ठीक क दी ये सरकार
देहीं के दरद या सिर-दरद हरदी तेल-इमामी
नवरतन तेल लागल ना होई कवनो  परेशानी 

शनिवार, 11 मार्च 2017

मोदी जी के अतुलनीय योगदान पर ये विजयगान।सुनकर आप भी कह पड़ेंगे || Har H...

Goyal Films Presents 
Song : Har Har Modi 
Album : Har Har Modi ||2017 
Singer : Prakash Chauhan 
Music-Vijay Nanda
Lyrics -Munna Dubey
Producer-R.Goyal 
Label : Amrapali Digital [ Amrapali Media Vision ]
Digital Partner: UNISYS INFOSOLUTION PVT.LTD 
For Feedback Call Us : 8586985814 or Mail Us: info@amrapalimediavision.com | Website : www.amrapalimediavision.com



Goyal Films Presents 
Song : Har Har Modi 
Album : Har Har Modi ||2017 
Singer : Prakash Chauhan 
Music-Vijay Nanda
Lyrics -Munna Dubey
Producer-R.Goyal 
Label : Amrapali Digital [ Amrapali Media Vision ]
Digital Partner: UNISYS INFOSOLUTION PVT.LTD 
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Anjali Raghav Bhojpuri Songs - Kiriya Khake Bataw - Bhojpuri Songs new 2...



Presenting new Bhojpuri love sad songs 2017 "Kiriya Khake Bataw" from the album Khinch Lem Chuaa Ke sung by Babloo Bawal, music by Suman,Rajesh and lyrics penned by Mukesh Pandey

A collection of Bhojpuri songs.भोजपुरी हॉट गाना,भोजपुरी सांग्स और विडियो देखने के लिए subscribe करें BhojpuriHits. To get all the latest bhojpuri hot videos, devar bhauji songs, subscribe us now

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Credits:

Title: Kiriya Khake Bataw
Album: Khinch Lem Chuaa Ke
Singer: Babloo Bawal
Music: Suman/Rajesh
Lyricist: Mukesh Pandey [ 7065204322 ]
Label: Moserbaer Entertainment
Digital Partner: UNISYS INFOSOLUTION PVT.LTD
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बुधवार, 1 मार्च 2017

भोजपुरी को आठवीं अनुसूची में शामिल करने का विरोध

हिंदी के चुनिंदा 110 विद्वानों ने प्रधानमंत्री को पत्र लिखकर भोजपुरी को संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल करने का विरोध किया है। इस संबंध में 14 जनवरी को जंतर-मंतर पर धरने की तैयारी भी है।
कोलकाता विश्र्वविद्यालय में हिंदी विभाग के प्रोफेसर और हिंदी बचाओ मंच के संयोजक डॉ अमरनाथ का कहना है कि भोजपुरी को संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल करने की मांग करने वालों ने अपनी मांग के पक्ष में जिन नौ आधारों का उल्लेख किया है, वे सभी तथ्यात्मक दृष्टि से अपुष्ट, अतार्किक और भ्रामक हैं।
दावा है कि भोजपुरी भाषियों की संख्या 20 करोड़ है, जबकि यह गलत तथ्य है। 2001 की जनगणना के अनुसार भोजपुरी बोलने वालों की संख्या तीन करोड़ 30 लाख 99 हजार 797 है। उन्होंने कहा, हिंदीभाषी समाज की प्रकृति द्विभाषिकता की है।
हम घरों में अपनी जनपदीय भाषा अवधी, भोजपुरी, ब्रजी भी बोलते हैं और लिखने-पढ़ने के लिए हिंदी का भी प्रयोग करते हैं। इसलिए राजभाषा अधिनियम के अनुसार हमें 'क' श्रेणी में रखा गया है और दस राज्यों में बंटने के बावजूद हमें हिंदीभाषी कहा गया है।
हिंदी बचाओ मंच का मानना है कि भोजपुरी के आठवीं अनुसूची में शामिल होने से हिंदीभाषी आबादी में से भोजपुरी भाषियों की जनसंख्या घट जाएगी। साथ ही ब्रज, अवधी, छत्तीसगढ़ी, राजस्थानी, बुंदेली, मगही, अंगिका आदि भाषाएं भी अपने लिए आठवीं अनुसूची में स्थान की मांग करेंगी और इनमें से किसी का दावा भोजपुरी से कमजोर नहीं है।
मैथिली की संख्या हिंदी में से पहले ही घट चुकी है। चूंकि संख्याबल के आधार पर ही हिंदी को राजभाषा का दर्जा मिला हुआ है। इसलिए इन भाषाओं के हिंदीभाषियों की कुल जनसंख्या से कटते ही राजभाषा के रूप में हिंदी का दावा खत्म होते देर नहीं लगेगी।

भाषा : भोजपुरी का भविष्य

मौजूदा समय में भारत में ही बीस करोड़ लोग भोजपुरी बोलते हैं। वैश्विक स्तर पर भी इसे बोलने-समझने वालों की तादाद करोड़ों में है।

नेपाल के थारू लोग भी भोजपुरी बोलते हैं। नेपाल में भोजपुरी भाषी लोगों की आबादी लाखों में है जो वहां की भाषा की तकरीबन नौ फीसद है। सच कहें तो आज की तारीख में भोजपुरी भाषा का जितना विस्तार हुआ है उतना अन्य किसी लोकभाषा का नहीं हुआ है। मौजूदा समय में भारत में ही बीस करोड़ लोग भोजपुरी बोलते हैं। वैश्विक स्तर पर भी इसे बोलने-समझने वालों की तादाद करोड़ों में है। कें द्र सरकार द्वारा भोजपुरी भाषा को संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल करने का प्रस्ताव भोजपुरी भाषा बोलने वाले लोगों का सम्मान तो है ही, साथ ही अन्य लोकभाषाओं को भी आठवीं अनुसूची में शामिल करने की दिशा में एक उम्मीदभरी पहल भी है। भोजपुरी के अलावा दूसरी भाषाओं को भी आठवीं अनुसूची में शामिल करने की मांग उठती रही है। भारतीय संविधान की आठवीं अनुसूची भारत की भाषाओं से संबंधित है और संविधान के 92 वें संशोधन अधिनियम, 2003 के बाद आठवीं अनुसूची में कुल 22 भाषाओं को राजभाषा के रूप में मान्यता हासिल है।
आठवीं अनुसूची में शामिल भाषाएं हैं-असमिया, बांग्ला, बोडो, डोगरी, गुजराती, हिंदी, कन्नड़, कश्मीरी, कोंकणी, मैथिली, मलयालम, मणिपुरी, मराठी, नेपाली, ओडिया, पंजाबी, संस्कृत, संथाली, सिंधी, तमिल, तेलुगु और उर्दू। अगर भोजपुरी समेत अन्य सभी भाषाओं को आठवीं अनुसूची में शामिल किया जाता है तो आठवीं अनुसूची में कुल भाषाओं की संख्या 38 हो जाएगी। जहां तक भोजपुरी का सवाल है तो यह सुंदर, सरस और मधुर भाषा है। इसकी मिठास लोगों को सहज ही अपने आकर्षण में बांध लेती है। यह एक विशाल भूखंड की भाषा है लिहाजा उसकी महत्ता और विस्तार के कारण ही इसे संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल कर संवैधानिक भाषा का दर्जा की मांग उठती रही है। 1969 से ही अलग-अलग समय पर सत्ता में आई सरकारों ने भोजपुरी भाषा को आठवीं अनुसूची में शामिल करने का आश्वासन दिया था। लेकिन दशकों गुजर जाने के बाद भी भोजपुरी को आठवीं अनुसूची में शामिल नहीं किया गया है।
अगर भोजपुरी को आठवीं अनुसूची में शामिल किया जाता है तो निसंदेह उसके सुखद परिणाम होंगे। एक तो भोजपुरी को संवैधानिक दर्जा हासिल हो जाएगा और दूसरे, भोजपुरी भाषा से जुड़ी ढेरों संस्थाएं अस्तित्व में आएंगी जिससे क्षेत्रीय भाषा का विकास होगा और साथ ही कला, साहित्य और विज्ञान को समझने-संवारने में मदद मिलेगी। संवैधानिक दर्जा मिलने से भोजपुरी भाषा की पढ़ाई के लिए बड़े पैमाने पर विश्वविद्यालय, कालेज और स्कूल खुलेंगे जिससे कि रोजगार के अवसरों में भी वृद्धि होगी। लेकिन कुछ विद्वानों की मानें तो भोजपुरी को आठवीं अनुसूची में शामिल किए जाने से हिंदी का नुकसान होगा। उनका तर्क है कि अगर भोजपुरी आठवीं अनुसूची में शामिल हो गई तो आने वाले दिनों में मैथिली की तरह भोजपुरी, राजस्थानी, छत्तीसगढ़ी आदि को अपनी मातृभाषा बताने वाले हिंदी भाषी नहीं गिने जाएंगे और फिर हिंदी को मातृभाषा बताने वाले गिनती के रह जाएंगे। यानी हिंदी की ताकत घटेगी और फिर अंग्रेजी को भारत की राजभाषा बनाने के पक्षधर उठ खड़े होंगे। यहां समझना होगा कि हिंदी क्षेत्र के विभिन्न बोलियों के बीच अगर कोई भाषा एकता का सूत्र है तो वह हिंदी है।
भोजपुरी भाषा के इतिहास को देखें तो इसे हिंदी की उपभाषा या बोली भी कहा जाता है। भोजपुरी अपने शब्दावली के लिए संस्कृत और हिंदी पर निर्भर है। वहीं कुछ शब्द इसने उर्दू से भी लिएं है। आचार्य हवलदार त्रिपाठी ने अपने शोध में पाया है कि भोजपुरी संस्कृत से निकली है। उन्होंने अपने कोश ग्रंथ ‘व्युत्पत्तिमूलक भोजपुरी की धातु और क्रियाएं’ के जरिए भोजपुरी तथा संस्कृत भाषा के मध्य समानता स्थापित की है। ऐसी मान्यता है कि भोजपुरी भाषा का नामकरण बिहार राज्य के आरा (शाहाबाद) जिले में स्थित भोजपुर गांव के नाम पर हुआ। मध्यकाल में इस स्थान को मध्यप्रदेश के उज्जैन से आए भोजवंशी परमार राजाओं ने बसाया था। उन्होंने अपनी इस राजधानी को अपने पूर्वज राजा भोज के नाम पर भोजपुर रखा। इसी के कारण इसके पास बोली जाने वाली भाषा का नाम भोजपुरी पड़ा। यह भाषा बिहार राज्य के बक्सर, सारण, छपरा, सीवान, गोपालगंज, पूर्वी और पश्चिमी चंपारण, वैशाली, भोजपुर और रोहतास जिलों के अलावा आसपास के क्षेत्रों में बोली जाती है। इस क्षेत्र को भोजपुरी क्षेत्र भी कहा जाता है।
वहीं उत्तर प्रदेश के बलिया, गाजीपुर, मऊ, आजमगढ़, वाराणसी, चंदौली, गोरखपुर, महाराजगंज के अलावा अन्य कई जिलों में यह बोली जाती है। 1812 ईस्वी में अंग्रेजी विद्वान और इतिहासकार डॉ. बकुनन भोजपुर क्षेत्र में आए थे और उन्होंने मालवा के भोजवंशी उज्जैन राजपूतों के चेरों जाति को पराजित करने के संबंध में उल्लेख भी किया है। भाषा के के अर्थ में भोजपुरी शब्द का पहला लिखित प्रयोग रेमंड की पुस्तक ‘शेरमुताखरीन’ के अनुवाद (दूसरे संस्करण) की भूमिका में मिलता है। इसका प्रकाशन 1789 है। राहुल सांकृत्यायन ने भोजपुरी को ‘मल्ली’ और ‘काशिका’ दो नाम दिए हैं। भोजपुरी जानने-समझने वालों का विस्तार केवल भारत में ही नहीं बल्कि विश्व के सभी महाद्वीपों तक है। इसका प्रमुख कारण ब्रिटिशराज के दौरान उत्तर भारत से अंग्रेजों द्वारा ले जाए गए मजदूर हैं। अब उनके वंशज वहीं बस गए हैं। इनमें सूरीनाम, मॉरीशस, गुयाना, त्रिनिनाद, टोबैगो और फिजी देश प्रमुख हैं।
मॉरीशस ने जून, 2011 में ही भोजपुरी भाषा को संवैधानिक मान्यता दे दी थी। पड़ोसी नेपाल के रौतहट, बारा, पर्सा, बिरग, चितवन, नवलपरासी, रुपनदेही और कपिलवस्तु में भी भोजपुरी बोली जाती है। नेपाल के थारु लोग भी भोजपुरी बोलते हैं। नेपाल में भोजपुरी भाषी लोगों की आबादी लाखों में है जो वहां की भाषा की तकरीबन नौ फीसद है। सच कहें तो आज की तारीख में भोजपुरी भाषा का जितना विस्तार हुआ है उतना अन्य किसी लोकभाषा का नहीं हुआ है। मौजूदा समय में भारत में ही बीस करोड़ लोग भोजपुरी बोलते हैं। वैश्विक स्तर पर भी इसे बोलने-समझने वालों की तादाद करोड़ों में है। भोजपुरी भाषा का इतिहास सातवीं सदी से प्रारंभ होता है। भोजपुरी साहित्यकारों की मानें तो सातवीं शताब्दी में सम्राट हर्षवर्धन के समय के संस्कृत कवि बाणभट्ट के विवरणों में ईसानचंद्र और बेनीभारत का उल्लेख है जो भोजपुरी कवि थे। नवीं शताब्दी में पूरन भगत ने भोजपुरी साहित्य को आगे बढ़ाने का काम किया। नाथसंप्रदाय के गुरु गोरखनाथ ने सैकड़ों वर्ष पहले गोरख बानी लिखा था। बाबा किनाराम और भीखमराम की रचना में भी भोजपुरी की झलक मिलती है।
बाद के भोजपुरी कवियों में तेग अली तेग, हीरा डोम, बुलाकी दास, दूधनाथ उपाध्याय, रघुवीर नारायण, महेंद्र मिश्र का नाम बड़े सम्मान के साथ लिया जाता है। हालांकि भोजपुरी भाषा में निबद्ध साहित्य प्रचुर मात्रा में उपलब्ध नहीं हैं लेकिन अनेक कवियों और लेखकों ने इसे समृद्ध भाषा बनाने में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है। भोजपुरी भाषा के लोक समर्थ कलाकार भिखारी ठाकुर ने भोजपुरी को नई ऊंचाई दी। वे एक ही साथ कवि, गीतकार, नाटककार, लोक संगीतकार और अभिनेता थे। उनकी कृति बिदेसिया, भाई-बिरोध, बेटी-बेचवा, कलयुग प्रेम उल्लेखनीय है। भोजपुरी भाषा के उत्थान में पांडेय कपिल, रामजी राय और भोलानाथ गहमरी का योगदान सराहनीय है। इसके साहित्य का इतिहास लिखने वालों में ग्रियर्सन, उदय नारायण तिवारी, कृष्णदेव तिवारी, हवलदार तिवारी और तैयब हुसैन गौरतलब हैं। आज भी ढेरों भोजपुरी लेखक, कवि, साहित्यकार और गायक भोजपुरी भाषा को समृद्ध करने का काम कर रहे हैं। संत कबीर दास का जन्मदिवस (1297 ईस्वी) भोजपुरी दिवस के स्वीकार किया गया है और विश्व भोजपुरी दिवस के तौर पर भी मनाया जाता है।
भोजपुरी भाषा में अनेक पत्र-पत्रिकाएं और ग्रंथ अनुदित हो रहे हैं। बाजार में इनकी जबरदस्त मांग भी है। भोजपुरी लोक साहित्य के अलावा भोजपुरी गीतों और फिल्मों ने भी कलकत्ता से लेकर मुंबई तक धमाल मचा रखा है। अब तो हिंदी फिल्मों में भोजपुरी गीतों का तड़का भी लगने लगा है। कई हिंदी फिल्में भोजपुरी गीतों की वजह से सुपर-डुपर हिट हो चुकी हैं। साहित्य, कला और फिल्मों के अलावा विश्व भोजपुरी सम्मेलन भी आंदोलनात्मक, रचनात्मक और बौद्धिक स्तर पर पहल कर भोजपुरी को समृद्ध बनाने, भोजपुरी साहित्य को सहेजने और उसके प्रचार-प्रसार में जुटा हुआ है। भोजपुरी भाषा के विकास और विस्तार के लिए भोजपुरी साहित्यकारों की ओर से भी उल्लेखनीय पहल हो रही है। मॉरीशस, सूरीनाम, त्रिनिदाद, फिजी, दक्षिण अफ्रीका, इंग्लैंड और अमेरिका में भी भोजपुरी भाषा के विकास के लिए कई संस्थान खोले गए हैं। यह भोजपुरी भाषा के उपादेयता और प्रासंगिकता को ही रेखांकित करता है। भोजपुरी को संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल करना भोजपुरी जनमानस की अपेक्षाओं और आकांक्षाओं के अनुकुल ही होगा।  (रीता सिंह)

राजनीतिः भोजपुरी की मांग और हिंदी का भविष्य : प्रेमपाल शर्मा

भोजपुरी हिंदी की प्राण है और रहेगी। बाकी दस राज्यों की बोलियां भी। अंग्रेजी के वर्चस्व से लड़ने की जरूरत है, न कि आपस में। हमें नौकरी, शिक्षा और न्यायालयों में अपनी भाषाओं की प्रतिष्ठा के लिए एक साथ आने की जरूरत है। हिंदी को मानकीकरण, लचीलेपन तथा समावेशिता आदि के लिए देश भर ने स्वीकारा था। भोजपुरी से उसका कोई विरोध नहीं।
हिंदी समेत सारी भारतीय भाषाएं संकट के दौर से गुजर रही हैं। हताशा में लोग यह भविष्यवाणी तक कर देते हैं कि 2050 तक अंधेरा इतना घना हो जाएगा कि सिर्फ अंग्रेजी दिखाई देगी। भविष्यवाणी की टपोरी बातों को न भी सुना जाए तो हिंदी की मौलिक बौद्धिक, कथा-उपन्यास की किताबों की छपाई-संख्या बता रही है कि अपनी भाषाएं-बोलियां हैं तो महा संकट में ही। ऐसे में भोजपुरी को संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल करने की मांग भाषाई व सांस्कृतिक मुद््दों से भटकाने और राजनीतिक प्रहसन से ज्यादा नहीं लगती। एक आम हिंदीभाषी सोचने को मजबूर है कि ऐसी मांग के पीछे मंशा क्या हो सकती है? क्या अपनी भोजपुरी बोली (या भाषा) पर अचानक कोई संकट आ गया? क्या उत्तर प्रदेश व बिहार की सरकारों ने, जहां की सीमाओं पर इस राजनीति के अखाड़े-अड्डे शुरू हुए हैं, कोई ऐसा कदम उठाया कि भोजपुरी अस्मिता आहत हुई? या सिर्फ संख्या-बल पर कुछ हासिल करने, पहचान बनाने और महत्त्वाकांक्षा का मामला भर है। निश्चित रूप से मैथिली व संथाली को आठवीं अनुसूची में शामिल करने के पूर्व उदाहरण इस मांग के उत्प्रेरक हैं, लेकिन यदि यही रफ्तार रही तो आठवीं अनुसूची में आठ सौ भाषाएं-बोलियां भी कम पड़ेंगी! फिर तो रोज नई मांग उठेगी।
थोड़ी देर के लिए अपनी बोली के शब्दों, उनके भाषाई जादू, रोमांच व सौंदर्य, गीत-संगीत के पक्ष में खड़ा हुआ जाए तो भी इनसे पूछने का मन करता है कि दिल्ली विश्वविद्यालय में पिछले पचास-साठ सालों में हिंदी माध्यम से पढ़ने वालों की संख्या लगातार कम हो रही है, उत्तर प्रदेश व बिहार के छात्रों की बढ़ती संख्या के बावजूद। ये गरीब बेचारे दिल्ली की अंग्रेजी की चकाचौंध में मारे जाते हैं। बीए, एमए में फेल होते हैं, अपनी पसंद का विषय अपनी भाषा (हिंदी माध्यम) में उपलब्ध न होने की वजह से बेमन से दूसरे विषय पढ़ते हैं। क्या कभी इनकी आवाज तथाकथित भोजपुरी के झंडाबरदारों ने सुनी?
2016 की अंतिम खबर थी नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल ने हिंदी में लिखी शिकायत व आवेदन लेने से मना कर दिया है। एक केंद्रीय विश्वविद्यालय ने गांधी पर शोध हिंदी में लेने से मना कर दिया। ऐसे सैकड़ों उदाहरण हैं। मगर इनके लिए कोई आंदोलन किया गया? पांच साल पहले एम्स (दिल्ली) में अनिल मीणा नाम के एक नौजवान डॉक्टर ने आत्महत्या से पहले अंग्रेजी के आतंक, पढ़ाई समझ में न आने का पत्र छोड़ा था। क्या हिंदी के साहित्यकारों या भोजपुरी अकादमी के कान पर जूं भी रेंगी? दिल्ली के एक सरकारी स्कूल की एक बच्ची की पिटाई अंग्रेजी न जानने की वजह से इतनी क्रूरता से की गई कि उसकी जान चली गई। दिल्ली में भोजपुरी की राजनीति कर रहे दिग्गज क्या यह नहीं जानते कि दिल्ली के निजी स्कूलों में हिंदी बोलने पर वर्षों से अघोषित प्रतिबंध है। जिन स्कूलों, विश्वविद्यालयों में हिंदी में ही पढ़ना-पढ़ाना मुश्किल हो रहा हो, वहां क्या भोजपुरी को कोई जगह मिल पाएगी?
और क्या ये सभी भोजपुरी की समृद्धि बढ़ाने के लिए ऐसी मांग करेंगे? क्या अपने बच्चों को भोजपुरी, मैथिली माध्यम में पढ़ाएंगे? या यह मैथिली आदि की तर्ज पर केवल आठवीं अनुसूची तक सीमित रहेगी? क्या उत्तर प्रदेश व बिहार की सरकारों से भोजपुरी में पढ़ाने की मांग सिर्फ दिल्ली में राजनीति चमकाने का औजार है? यों तो लोकतंत्र के कई चेहरे भारत के अलग-अलग हिस्सों में मौजूद हैं और होने भी चाहिए। लेकिन सबसे विरूपित चेहरा गंगाघाटी का है जहां हर चीज की उम्मीद सरकार से ही की जाती है- माल भी उसी का और भरपेट गालियां भी उसी को। भोजपुरी के पीछे की मंशा भी जगजाहिर है।
आठवीं अनुसूची में लाने से संघ लोक सेवा आयोग की सर्वोच्च परीक्षा (सिविल सेवा परीक्षा) में मैथिली, कोंकणी, उर्दू, हिंदी की तरह भोजपुरी को भी एक वैकल्पिक विषय के रूप में लेने की सुविधा हो जाएगी और इससे हो सकता है दस-बीस भोजपुरी छात्रों का सरकारी नौकरी में प्रवेश हो जाए। मौजूदा दौर में भाषा-साहित्य के वैकल्पिक परचे में ऐसा हो भी रहा है। इंजीनियरिंग किया है आईआईटी कानपुर, खड़गपुर, दिल्ली से, सिविल सेवा में वैकल्पिक विषय लिया मैथिली, संस्कृत, डोगरी और कभी-कभी मलयालम, तेलुगू, मराठी भी। इंजीनियरिंग, डॉक्टरी की अपनी विशेषज्ञता को छोड़ कर। पौ बारह। सीमित पाठयक्रम, सीमित पेपर बनाने वाले, जांचने वाले। अस्सी के दशक में पालि भाषा-साहित्य आदि के संदर्भ में ये आंकड़े सामने आए। आयोग भी क्या करे? पक्षपात से बचने और देश की सर्वश्रेष्ठ प्रतिभाओं को चुनने के लिए कई उपाय किए गए। कुछ विषयों को हटाना भी पड़ा।
कुछ सुधार पिछले दो साल में हुए हैं जब दो वैकल्पिक विषयों की जगह केवल एक कर दिया गया है। लेकिन भाषा-साहित्य के बूते पिछले दरवाजे से सिविल सेवाओं में प्रवेश पर अब भी आयोग चौकन्ना है। हाल ही में पूरी परीक्षा प्रणाली की समीक्षा के लिए गठित बासवान समिति ने अपनी रिपोर्ट में एक वैकल्पिक विषय को भी हटाने की बात कही है, जो ठीक भी है। सभी के लिए समान प्लेटफार्म, सामान्य ज्ञान आदि की परीक्षा। न मैथिली, कोंकणी न गणित, उर्दू आदि। यानी जिस उम्मीद से भोजपुरी के रास्ते सिविल सेवाओं में सेंध लगाने की मांग की जा रही है वही पूरी तरह खत्म हो सकती है।
इसी मुद््दे से जुड़े संक्षेप में कुछ और सवाल। क्या भोजपुरी मंच संघ लोक सेवा आयोग की दर्जन भर अखिल भारतीय परीक्षाएं- जैसे डॉक्टरी, इंजीनियरिंग, वन सेवा, रक्षा- भारतीय भाषाओं में कराने की मांग करेगा? दिल्ली में लाखों भोजपुरी बोलने वाले हैं, इलाहाबाद व पटना में भी। कभी कोई आवाज क्यों नहीं उठी? सिविल सेवा परीक्षा के सी-सैट में वर्ष 2011 में तत्कालील यूपीए सरकार ने अंग्रेजी लाद दी थी, जिसके परिणामस्वरूप हिंदी माध्यम से परीक्षा देने वाले और सफल होने वाले पंद्रह-बीस प्रतिशत से घट कर पांच प्रतिशत से भी कम हो गए थे। क्या किसी ने भोजपुरी के इन नेताओं का नाम सुना? 2014 में नई सरकार ने इस अंग्रेजी को हटाया, सिविल सेवा परीक्षार्थियों के संघर्ष के सामने घुटने टेकते हुए।
इसलिए वक्त का तकाजा है कि हम क्षेत्रीय भाषा, बोलियों की संकीर्ण दृष्टि को छोड़ कर पूरे देश के लिए स्वीकृत और संवैधानिक रूप से अधिकृत हिंदी के पक्ष में अपनी आवाज बुलंद करें। भोजपुरी जैसी किसी मांग से राष्ट्रीय स्तर पर हिंदी का पक्ष कमजोर ही होगा। प्रशासन के लिए भी गलत साबित होगा।
भोजपुरी और ऐसी दर्जन भर भाषाएं भी अलग हो जाएं तो हिंदी की मौजूदा संवैधानिक स्थिति पर देश के कई राज्य उंगली उठाने लगेंगे! लग जाएगा पलीता गांधी, राजेंद्र प्रसाद, नेहरू, पटेल, आयंगर के राष्ट्रीय सपनों को, जो हिंदुस्तानी (हिंदी) को अपने व्यापक अनुभव के कारण संपर्क भाषा मानते थे और इसीलिए उसे संवैधानिक राजभाषा का दर्जा मिला। यह संविधान का उल्लंघन होगा या उसका पालन?
संविधान के नीति निर्देशक खंड में सभी भाषाओं-बोलियों को आगे बढ़ाने की बात कही गई है। यह हम सबका दायित्व है कि सरकारी कामकाज व शिक्षा में अपनी भाषाओं-बोलियों को आगे बढ़ाएं। भोजपुरी हिंदी की प्राण है और रहेगी। बाकी दस राज्यों की बोलियां भी। सांस्कृतिक संकट के इस दौर में अंग्रेजी के वर्चस्व से लड़ने की जरूरत है, न कि आपस में। हमें नौकरी, शिक्षा और न्यायालयों में अपनी भाषाओं की प्रतिष्ठा के लिए एक साथ आने की जरूरत है। हिंदी को मानकीकरण व लचीलेपन आदि के लिए देश भर ने स्वीकारा था। भोजपुरी से उसका कोई विरोध नहीं।

हिंदी को कमजोर करने की कोशिश


हिंदी को कमजोर करने की कोशिशहिंदी को कमजोर करने की कोशिश
भोजपुरी को संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल कराने की मांग को लेकर विभिन्न स्तरों पर प्रयास हो रहे हैं।
भोजपुरी को संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल कराने की मांग को लेकर विभिन्न स्तरों पर प्रयास हो रहे हैं। दिल्ली के जंतर-मंतर पर भोजपुरी जनजागरण अभियान के तत्वाधान में इस मांग के समर्थन में धरना आयोजित किया जा रहा है। सांसद मनोज तिवारी ने भी संसद में इस मांग को उठाया। हालांकि चौदहवीं लोकसभा में इसका आश्वासन भी दिया गया था, लेकिन वादा पूरा नहीं किया गया। भोजपुरी के हिमायती कहते हैं कि नेपाली प्रधानमंत्री ने भोजपुरी में शपथ ली, मॉरीशस में बड़ी तादाद में भोजपुरी बोलते हैं फिर करोड़ों लोगों की इस भाषा को आठवीं अनुसूची के हक से क्यों वंचित रखा जा रहा है? संविधान की आठवीं अनुसूची भारतीय गणतंत्र की स्वीकृत भाषाओं को जगह देती है। अपेक्षा थी ये सभी भाषाएं हिंदी को राजभाषा के रूप में स्थापित करने में मददगार होंगी। शुरुआत में इसमें 14 भाषाएं थीं। वर्तमान में 22 भाषाएं हैं। देश में प्रचलित अन्य 38 बोलियां-भाषाएं इस सूची में शमिल होने का दावा कर रही हैं, लेकिन सवाल उठता है कि इसमें किसे जगह दी जाए और उसका पैमाना क्या बने? आज भाषा की जो राजनीति हो रही है वह न केवल हिंदी के हितों के विपरीत है, बल्कि अंग्रेजीपरस्ती का भी प्रमाण है। अंग्रेजी ने हिंदी के अन्य भारतीय भाषाओं के साथ रिश्ते में सेंध लगाई है। अन्यथा लोक भाषाओं से तो हिंदी का गहरा लगाव है। हिंदी भाषी असल में द्विभाषी हैं। हिंदी के साथ-साथ वे भोजपुरी, हरियाणवी, अवधी और ब्रज से लेकर कुमाऊंनी जैसी तमाम लोक भाषाओं का मिश्रण करते हैं। लोकभाषाओं के साथ हिंदी का यह संगम बड़ी सहजता के साथ होता है। लोकभाषाएं हिंदी में घुली हुई हैं। हिंदी साहित्य में अवधी, ब्रज और भोजपुरी का अतुलनीय योगदान है। क्या कबीर, सूर, तुलसी, रहीम और जायसी के बिना हिंदी असल में हिंदी रह सकेगी? बावजूद इसके भाषा के नाम पर राजनीति लगातार जारी है। हिंदी पट्टी की लोकभाषाएं हिंदी की बड़ी ताकत हैं। देश में भाषाओं और संस्कृतियों के बहुत मेल होते हैं। आज जरूरत है कि दिखावे की मानसिकता से उबरकर अंग्रेजी क खिलाफ भारतीय भाषाओं के मान-स्वाभिमान और चेतना के लिए कर्मठता से काम किया जाए।
भाषा संवाद के माध्यम से समाज की आधारशिला रखती है। मानवीय संबंधों और सामाजिकता का आधार भी भाषा ही प्रदान करती है। भाषा से समाज की स्मृति निर्मित होती है जो उसकी परंपराओं को संभव बनाकर उसे गतिशील रखती है। इस लिहाज से अपनी हजारों वर्षों की यात्रा में हिंदी ने लंबा सफर तय किया है। स्वतंत्रता आंदोलन में वह भारत की एक प्रतिनिधि भाषा बन गई। वह सफलतापूर्वक अभिव्यक्ति का माध्यम और सहज संपर्क भाषा के रूप में देशवासियों को जोड़ने का काम कर रही थी। बापू समेत अनेक लोगों द्वारा उसे ‘राष्ट्रभाषा’ कहा जाने लगा। आजादी के बाद धीरे-धीरे अखबार, रेडियो, सिनेमा, टीवी आदि ने हिंदी का सार्वजनिक जीवन में तीव्र गति से प्रचार-प्रसार किया। अब इंटरनेट के जरिये ट्विटर, ब्लॉग, यूट्यूब जैसे सोशल मीडिया ने भाषा प्रयोग का नक्शा ही बदल दिया है। इन माध्यमों से हिंदी की लोकप्रियता बढ़ी है। बाजार और मनोरंजन की दृष्टि से भी हिंदी और सुदृढ़ हुई है, मगर अब शुद्ध हिंदी के बजाय अंग्रेजी के साथ मिलकर बनी हिंग्लिश रूपी खिचड़ी का ही अधिक इस्तेमाल हो रहा है।
भारतीय संविधान देवनागरी लिपि में लिखी जाने वाली हिंदी को देश की राजभाषा घोषित करता है। राज्य अपनी भाषा चुन सकते है और उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, राजस्थान, मध्य प्रदेश, झारखंड, हिमाचल, बिहार और छत्तीसगढ़ ने हिंदी को प्रदेश की राजभाषा का दर्जा दिया है। हिंदी पट्टी में लगभग 45 प्रतिशत भारतीय आते हैं। अंग्रेजी राज में अंग्रेजी संघ स्तर पर भाषा थी। 1950 में हिंदी को ‘राजभाषा’ स्वीकार किया गया। यह आशा थी कि अगले 15 वर्षों में वह अंग्रेजी का स्थान ले लेगी, मगर यदि आवश्यकता हो तो आगे भी यह व्यवस्था चल सकेगी। राजभाषा अधिनियम, 1963 में कहा गया कि आगे भी हिंदी और अंग्रेजी व्यवहार में चलती रहें। 1967 में यह निर्णय हुआ कि जब तक संसद कोई प्रस्ताव न पारित करे तब तक यह व्यवस्था बदस्तूर चलती रहेगी। इसमें कहा यही गया कि ‘हिंदी के अतिरिक्त अंग्रेजी चलती रहेगी’, लेकिन व्यावहारिक रूप से अंग्रेजी ही प्रमुख बनी रही और हिंदी मात्र अनुवाद की भाषा बन कर रह गई। इस तरह संवैधानिक व्यवस्था के अनुसार अंगे्रजी का भविष्य अनंत काल के लिए सुरक्षित और हिंदी का भविष्य सर्वदा के लिए अनिश्चित हो गया। अंग्रेजी में कायदे-कानून रहेंगे तो लोकशाही की कोई संभावना नहीं बनती है। ऐसे में लोक भाषा का प्रयोग न होने के कारण स्वतंत्र भारत में जनता परतंत्र ही बनी रहेगी। देश का भाषागत परिदृश्य जटिल होता जा रहा है।
गैर-अंग्रेजीदां लोगों की प्रतिभा को दरकिनार करते हुए पराई भाषा ही मजबूत होती जा रही है। अभी भी दस्तावेज अंग्रेजी में ही प्रामाणिक माने जाते हैं। जीवन को समृद्ध करने, अच्छी नौकरी और सम्मान अर्जित करने के लिए अंग्रेजी का ही आश्रय लेना पड़ता है। इसे अकाट्य सत्य मान लिया गया है। इससे अपनी भाषा के प्रति अवमानना का भाव भी लोगों में दिखता है। शायद अन्य भारतीय भाषाओं के लोगों में यह हीनता ग्रंथि उतनी मजबूत नहीं। यदि विकास का मूल्यांकन करें तो स्वतंत्रता पूर्व की व्यापक राष्ट्रभाषा अब सीमित राजभाषा की ओर आगे बढ़ रही है और उसकी भूमिका संदिग्ध बनी हुई है। शासन की अंग्रेजीपरस्त नीति के चलते भारतीय भाषाओं पर अत्याचार होते रहे। आर्थिक उपनिवेशवाद और उसी से जुड़े भाषाई उपनिवेशवाद केतहत अंग्रेजी भाषा प्रयोग की उत्कंठा से भारतीय आभिजात्य वर्ग का उदय हुआ। सांस्कृतिक पराधीनता के चलते सत्ता को दृढ़ करने के लिए भाषा को नष्ट करने के उद्देश्य से स्वतंत्र भारत में अंग्रेजी सत्ता की भाषा बनी। उदारीकरण की छाया में पनप रहे नव साम्राज्यवाद के अंतर्गत ज्ञान-विज्ञान और तकनीकी जीवन दृष्टि के साथ अमेरिकी या यूरोपीय उपनिवेश बनने पर आमादा हो रहे हैं। इन सबका उद्देश्य भविष्य की पीढ़ियों को उनकी भाषा और संस्कृति से विपन्न बनाना है, मगर भारत देश की इमारत विदेशी भाषा की नींव पर नहीं बन सकती। उसकी सभ्यता की जड़ें अंग्रेजी में नहीं मिलेंगी।
निष्ठा की कमी और अंग्रेजी की श्रेष्ठता का दबाव-ये दो प्रमुख कारण हैं कि हम भाषा के प्रश्न को सुलझा नहीं पाए हैं। अंग्रेजी जकड़बंदी से मौलिक चिंतन और ज्ञान-निर्माण को श्राप लग चुका है। भाषा की शक्ति उसके प्रयोग से ही आती है। अंग्रेजी का आतंक उसे ‘अंतरराष्ट्रीय’ करार देकर बनाया गया है। न्यायपालिका, प्रशासन और संभ्रांत पेशों में अंग्रेजी की ही धाक बनी रही। हमारे जनप्रतिनिधि यदि हिंदी जानते हैं तो नौकरशाहों को अंग्रेजी ही रास आती है। कुलीन उच्च वर्ग का स्वार्थ और सामंती वर्चस्व स्थापित रखने की तीव्र आकांक्षा के तहत अंग्रेजी स्थापित और प्रतिष्ठित बनी रही। वह सत्ता से जुड़ी और उसका साम्राज्यवादी रूप आकर्षक बन गया। गैर-अंग्रेजीदां लोगों का रसूख घटने लगा। अंग्रेजी हटाने की मानसिकता नहीं बनी। आज आलम यह है कि बिना अंग्रेजी जाने किसी उच्च पद पर पहुंचने की कल्पना भी नहीं की जा सकती।
[ लेखक गिरीश्वर मिश्र, महात्मा गांर्धी ंहदी विश्वविद्यालय के कुलपति हैं ]

यादें..... अंजना बख्शी

यादें बेहद ख़तरनाक होती हैं
अमीना अक्सर कहा करती थी
आप नहीं जानती आपा
उन लम्हों को, जो अब अम्मी
के लिए यादें हैं...
ईशा की नमाज़ के वक़्त
अक्सर अम्मी रोया करतीं
और माँगतीं ढेरों दुआएँ
बिछड़ गए थे जो सरहद पर,
सैंतालीस के वक़्त उनके कलेजे के
टुकड़े.
उन लम्हों को आज भी
वे जीतीं दो हज़ार दस में,
वैसे ही जैसे था मंज़र
उस वक़्त का ख़ौफनाक
भयानक, जैसा कि अब
हो चला है अम्मी का
झुर्रीदार चेहरा, एकदम
भरा सरहद की रेखाओं
जैसी आड़ी-टेढ़ी कई रेखाओं
से, बोझिल, निस्तेज और
ओजहीन !

गेस्ट ब्लॉग : सारे चुप हैं

यह ग़ज़ल क़स्बा के पाठक पंकज कुमार ‘शादाब’ नें लिखा है।
ऐसा क्यूं है कि मशाल सारे चुप हैं
वतन परस्तों की कतारे चुप हैं
अँधेरे से जंग कब तक झोपड़े करेंगे
अभी भी महलों की दीवारे चुप हैं
सड़क पर क़त्ल हुआ एक गरीब का
अमीरों की जश्न में डूबे अखबारे चुप हैं
कोई वज़ह तो होगी कि हिमालय भी बहने लगा
पूछो तो, हर राज्य की सरकारे चुप है
कैसा खौफनाक मंज़र था उस वारदात का
आज तक चाँद और तारे चुप हैं
बर्बादी बेहिसाब हुई पूरा शहर डूबा
अपनी ग़लती पे दरिया और किनारे चुप हैं
जुर्म करने वालों तुम बेखौफ फिरो
आज कल बगावत के नारे चुप हैं
पत्थरों की चोरी में चिराग भी गुम हुए
अपनी बदकिस्मती पे मज़ारे चुप हैं

भोजपुरी भारत के इतिहास का पसीना है : रवीश कुमार

इ के ह जे डिसिजन ले ले बा कि भोजपुरी के कोर्स न चली। पढ़ाई न होई। भाई जी अइसन मत करी। भीसी बनल बानी त राउर एक काम भाषा के विकास और समर्थनों करेके बा। दुकान समझ के विश्विद्यालय मत चलाईं। ढेबुआ कमाए के ई अड्डा न ह। कौनो चूक भइल बा त ठीक कराईं।
सुननी ह कि पचीस साल से भोजपुरी के पढ़ाई चलत रहल। वीर कुँवर सिंह विश्वविद्यालय में। कुँवर सिंह ज़िंदाबाद। बताईं उनकर नाम पर बनल विश्वविद्यालय में भोजपुरी न पढ़ावल जाईं त कैंपसवे बंद कर दीं। जे भी दोषी बा ओकरा के खोजीं। लोग भोजपुरी नइखे पढ़त त रउआ प्रोत्साहित करीं। रिसर्च करवाएँगे। जे छात्र जीवन में नइखे ओकरा के भोजपुरी पढ़ाईँ। गृहस्थों त पढ़ सकेला। ई इंटरनेशनल भाषा ह।भोजपुरी बोले वाला लोग मजूरी करत रह गईल। ऐसे हमनी के कापी किताब कम छपनी सन लेकिन इ भाषा के मज़ा कहीं न मिली दुनिया में। विश्वविद्यालय में नौजवाने पढ़िहें सन, इ कौनो बात न भइल। केहू पढ़ सकेला।
ऐसे खिसियाईं जन। गभर्नर साहब से कहीं कि कोर्स के मान्यता देस। मान जाईं। गभर्नर साहब कहले भी बाड़न कि विचार होता। हमार मातृ भाषा ह भोजपुरी। ऐसे रउआ कोर्स चलाईं। लोग नइखे आवत त कोर्स के दर दर ले जाईं। बाकी हमरा डिटेल नइखे मालूम, ऐसे कौनों बात बेजाएं लिख देनी त माफ कर दीं लेकिन बात सही बा कि भोजपुरी के राज्य के समर्थन चाहीं। हम इ मांग के व्यक्तिगत समर्थन दे तानी। हम त चैनल के एंकर बानी लेकिन भोजपुरी हमार निज भाषा ह। स्व ह। ऐसे भोजपुरी के साथ अन्याय मत करीं। हमनी के अकेले नइखीं। ढेर लोग बा। कशिश चैनल पर भोजपुरी पर बहस देख के आँख से लोर गिरे लागल। मातृ भाषा नू है जी मेरी। एतना निर्मोही कैसे हो गइनी रउआ जी। बंद करे ला भोजपुरी मिलल ह।
आ हो लइकन लोग, आंदेलन कर सन लेकिन सरकारी संपत्ति के नुक़सान जन पहुँचावअ। जे लोग नवजुवक बा उनकरो से व्यक्तिगत अनुरोध करतआनी। आंदोलन में भोजपुरी के नीमन गीत बजालव जाव। भोजपुरी गीत बहुत बेकार होत जाता। अश्लील भी। लुहेंड़ा खानी गावता लोग। इहो बात के आंदोलन चलो कि भोजपुरी में निमन लिखल जाओ। गवर्नर साहब के शारदा सिन्हा के गीत सुना द लोग, उ मान जइहें। केहू के बेजाएं कहला के ज़रूरत नइखे। राज्य सरकार के चाहीं कि बिहार के बोली पर शोध ला एक ठो सेंटर खोल दे। बीस एकड़ ज़मीन में हर बोली के सेंटर एक्केगो कैंपस में। कइसन रहीं इ बिचार।
भोजपुरी का सम्मान, इतिहास का सम्मान है ।भोजपुरी भारत के इतिहास का पसीना है। ऐसी भाषा है जो मज़दूरी करती है। इस पसीने को सूखने मत दीजिये। यह भाषा बिहारीपन की आत्मा है। कृपया ध्यान दें।
रवीश कुमार

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