बुधवार, 1 मार्च 2017

गेस्ट ब्लॉग : सारे चुप हैं

यह ग़ज़ल क़स्बा के पाठक पंकज कुमार ‘शादाब’ नें लिखा है।
ऐसा क्यूं है कि मशाल सारे चुप हैं
वतन परस्तों की कतारे चुप हैं
अँधेरे से जंग कब तक झोपड़े करेंगे
अभी भी महलों की दीवारे चुप हैं
सड़क पर क़त्ल हुआ एक गरीब का
अमीरों की जश्न में डूबे अखबारे चुप हैं
कोई वज़ह तो होगी कि हिमालय भी बहने लगा
पूछो तो, हर राज्य की सरकारे चुप है
कैसा खौफनाक मंज़र था उस वारदात का
आज तक चाँद और तारे चुप हैं
बर्बादी बेहिसाब हुई पूरा शहर डूबा
अपनी ग़लती पे दरिया और किनारे चुप हैं
जुर्म करने वालों तुम बेखौफ फिरो
आज कल बगावत के नारे चुप हैं
पत्थरों की चोरी में चिराग भी गुम हुए
अपनी बदकिस्मती पे मज़ारे चुप हैं

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